रेवाड़ी : परम पूज्य आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज ने दसलक्षण पर्व के अवसर पर अतिशय क्षेत्र नसियां जी में आयोजित श्री तीस चौबीसी महामण्डल विधान में धर्म के सप्तम लक्षण "उत्तम तप" की व्याख्या करते हुए कहा कि "इच्छा निरोधः तपः" अर्थात् इच्छाओं का निरोध करना तप है| पवित्र विचारों के साथ शक्ति अनुसार की गई तपस्या से कर्मों की निर्जरा होती है और कर्मों की निर्जरा करके ही हम मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं| इसलिए हमें तप करना चाहिए| समस्त रागादी भावों के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप में लीन होना अर्थात आत्मलीनता द्बारा विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है| तप मात्र उसे कहते हैं जो कर्मों के क्षय की भावना से किया जाये| कर्मों के दहन अर्थात भस्म कर देने के कारण ही इसे तप कहते हैं| जैसे अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, वैसे ही तप जन्म-जन्मांतरों के कर्मों को भस्म कर देता है|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि ऊर्जा को रूपांतरित करने का नाम तप है| स्वयं में स्वयं के गवाह बनने का नाम तप है| स्वयं के परमात्मा को जागृत करने का नाम तप है| ध्यान, साधना करने का नाम तप है| मन के सागर में इच्छा रुपी लहरों को समाप्त करने का नाम तप है| जब आत्मा में संयम का जागरण होता है, तभी व्यक्ति तप को स्वीकार करता है| तप साधना ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग है| जीवन का उपयोग वही करते हैं जिनकी आत्मा जागृत हो गयी है| जिन्होनें आत्म-शक्ति को पहचान लिया है| पहले शरीर को तपाना होगा तभी आत्मा तपेगी और आत्मा तप करके ही विशुद्ध होती है, कर्म कालिमा हर जाती है| प्रत्येक व्यक्ति को शक्ति के अनुसार तप अवश्य ही करना चाहिए ताकि आत्मा में जागृति का अवतरण हो सके| पाँचों इन्द्रियों के विषयों को तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिए जो अपनी आत्मा का विचार करता है,उसके नियम से तप-धर्म होता है|
आचार्य कुन्द-कुन्द स्वामी ने कहा कि जब भी मुक्ति मिलेगी, तप के माध्यम से ही मिलेगी| विभिन्न प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर जो समय-समय पर आत्मा की आराधना में लगा रहता है, उसे ही मोक्षपद प्राप्त होता है| जब कोई परम योगी, जीव रुपी लोह-तत्त्व को सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रुपी औषध लगाकर तप रुपी धौंकनी से धौंककर तपाते हैं, तब वह जीव रुपी लोह-तत्त्व स्वर्ण बन जाता है| संसारी प्राणी अनंत काल से इसी तप से विमुख हो रहा है और तप से डर रहा है कि कहीं जल न जाये| पर वैचित्र्य यह है कि आत्मा के अहित करने वाले विषय-कषायों में निरंतर जलते हुए भी सुख मान रहा है| तप एक निधि है जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अंगीकार करने के उपरांत प्राप्त करना अनिवार्य है|
आचार्यों ने तप के दो भेद बताये हैं - एक भीतरी अंतरंग तप और दूसरा बाह्य तप| बाह्य तप एक प्रकार से साधन के रूप में है और अंतरंग तप की प्राप्ति में सहकारी है| बाह्य तप के बिना भीतरी अंतरंग तप का उद्भव संभव नहीं है| जो सही समय पर इन तपों को अंगीकार कर लेते हैं, वास्तव में वह समय के ज्ञाता हैं और समयसार के ज्ञाता भी हैं| ऐसे तप को अंगीकार करने वाले विरले ही होते हैं| विशुद्धि के साथ किया गया तप ही कार्यकारी होता है| इसलिए आचार्यों ने कहा है कि अणुव्रतों को धारण करके क्रम-क्रम से विशुद्धि बढ़ाते हुए आगे महाव्रतों की ओर बढ़ना चाहिए| जब तक शरीर स्वस्थ है, इन्द्रिय सम्पदा है, ज्ञान है और तप करने की क्षमता है तब तक तप को ही एकमात्र कार्य मानकर कर लेना चाहिए|
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