आज़ादी के समय पूरा देश उत्साहित था। हर धर्म के लोगों ने नयी सरकार को आशीर्वाद दिया था। इसी क्रम में पं.नेहरू को तमिलनाडु के मठ की ओर से ‘निजी रूप’ में सेंगोल दिया गया था। यह न्यायप्रिय शासन के लिए शुभकामना थी। न यह सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक था और न इसका कोई रिकॉर्ड है। यह वैसा ही था जैसे कि परीक्षा का परिणाम आने के बाद कोई मंदिर जाता है या घर में ही पूजा करता है। जिस तरह गोदी मीडिया सेंगोल की शीर्ष पर स्थापित ‘नंदी’ के गुण गा रहा है, उससे तो लगता है जैसे भारत का नया ‘प्रतीक चिन्ह’ खोज लिया गया है जिसके सामने अशोक की लाट के शेरों वाला राष्ट्रीय प्रतीक पीछे रह गया है। राजकाज और कई मोर्चे पर बुरी तरह विफल केन्द्र सरकार चुनावी साल में ऐसे ही धार्मिक प्रतीकों के ज़रिए जनता का ध्यान भटकाना चाहती है। लेकिन मोदी सरकार इसके ज़रिए जो ‘धार्मिंक समांतर’ रच रही है, उसमें दलित या आदिवासी के लिए कोई जगह नहीं हो सकती, यह भी स्पष्ट है। अगर दलित पृष्ठभूमि से आये राष्ट्रपति रामनाथ कोविद को शिलान्यास से और आदिवासी महिला राष्ट्रपति को उद्घाटन समारोह से दूर रखा गया है तो इस आरोप में बल मिलना स्वाभाविक है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक - हेमंत कुमार(शिक्षक), ग्राम+पोस्ट-गोराडीह, जिला-भागलपुर(बिहार)
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