भक्तामर का द्वितीय काव्य द्वितीय काव्य ही नहीं अपितु अद्वितीय काव्य है ये उद्गार परम पूज्या आर्यिका श्री 105 अर्हंश्री माताजी ने रेवाड़ी के नसिया जी में प्रणम्य सागर मांगलिक भवन में दिए। नेहा जैन प्राकत ने बताया आर्यिका ससंघ के सानिध्य में चल रहे 48 दिवसीय भक्तामर विधान के द्वितीय दिन के पुण्यार्जक परिवार "श्री दिनेश जैन लोहिया परिवार एवं श्री दिवाकर जैन सपरिवार" रहे।
माताजी ने द्वितीय काव्य का महत्व बताते हुए बताया कि प्रथम और द्वितीय दोनों युगल काव्य हैं द्वितीय काव्य द्वितीय ही नहीं अपितु अद्वितीय और अलौकिक है। सम्पूर्ण कार्यों की सिद्धि के लिए, अपनी बुद्धि को बढ़ाने के लिए दूसरे काव्य की आराधना करनी चाहिए लेकिन आराधना के मध्य इच्छा बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए। भगवान की भक्ति निश्चिंत होकर करो, विकल्प रहित होकर करो जो होगा सो देखा जाएगा यह सोचकर भगवान की भक्ति हमें विशुद्ध भावों से करनी चाहिए।
जिसने भक्तामर स्तोत्र पर श्रद्धान कर लिया न उसे ज्योतिषी, तांत्रिक, मांत्रिक ,देवी- देवताओं के पास जाने की आवश्यकता है उसे तो मात्र वीतरागी देव के पास आने की आवश्यकता है। एक कहानी के माध्यम से माताजी ने बताया जिस तरह सेठ हेमदत्त को राजा के द्वारा अंध कूप में डाल दिया गया लेकिन उसे भक्तामर के प्रथम औऱ दूसरे काव्य पर श्रद्धा थी वह उस काव्य और रिद्धि मंत्र को श्रद्धा पूर्वक पढ़ता रहा और मंत्र के प्रभाव उसे देवी द्वारा उसके घर पर पहुंचा दिया गया हमें भी अपनी श्रद्धा उसी तरह रखनी चाहिए।
सुभौम चक्रवर्ती ने णमोकार को छोड़ा तो उसे सातवें नर्क में जाना पड़ा। इसीलिए चाहे कितनी भी विपत्ति आ जाये आप अपने भक्तामर को मत छोड़ना। प्रवचन के पश्चात आज का नियम में "टमाटर का त्याग" करवाया। यह विधान 48 दिनों तक इसी तरह पूरी भक्ति के साथ चलेगा। सैकड़ों परिवार प्रभु भक्ति का आनंद ले रहे हैं।
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें