भक्तामर का तृतीय काव्य जो सर्वसिद्धियों को प्रदान करने वाला है। तीसरे दिन के पुण्यार्जक परिवार श्री नरेंद्र कुमार जैन सुपुत्र श्री पोलिया मल जैन, गांधीनगर की और से आज का श्री भक्तामर विधान हुआ।
परम पूज्या गुरु मां आर्यिका रत्न 105 अर्हंश्री माताजी ने रेवाड़ी के नसिया जी में प्रणम्य सागर मांगलिक भवन में चल रहे 48 दिवसीय भक्तामर विधान के अंतर्गत प्रवचन में बताया कि जिस प्रकार बालक जल में स्थित चंद्रमा के प्रतिबिंब को पकड़ना चाहता है उसी प्रकार लज्जा से रहित मैं, बुद्धि के बिना भी आपकी स्तुति करना चाहता हूं। भक्तामर को ऐसे पढ़ो, इतनी भक्ति से करो, कि तुम्हें सब कुछ भक्तामरमय लगने लगे। जीना तो भक्तामर के लिए, भोजन करना तो भक्तामर के लिए, पूरा जीवन हमारा भक्तामर के लिए हो, इस प्रकार भक्तामर जी की आराधना करो। इस तीसरे काव्य में लघुता की अभिव्यक्ति की गई है। जो जितना लघु अर्थात विनयवान होता है वह उतनी ऊंचाइयों को तय करता है। तो इस काव्य में आचार्य भगवन् मानतुंग स्वामी जी लघुता की अभिव्यक्ति करते हुए कह रहे हैं कि मैं अल्प बुद्धि वाला होने पर भी आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूं।
बुद्धि उसी की बढ़ती है जिसके विनयगुण होता है। उसको अनायास ही कार्यों में सफलता प्राप्त होती है क्योंकि विनय के बिना विद्या ठहरती नहीं है। इसलिए जीवन में विनयगुण का होना अति अनिवार्य है। तो यह काव्य सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाला केवल पूर्ण श्रद्धान के साथ किया जाए तो निश्चित रूप से सफलता प्रदान करने वाला है।
गुरु मां ने यह भी बताया कि यदि किसी प्रकार की नजर लगे तो उसको निकालने वाला यह काव्य है। जो भी इस काव्य को ऋद्धि एवं पूर्ण श्रद्धान के साथ करता है उसको कैसी भी नजर लगी हो वह बाहर निकल जाती है, फिर दुकान आदि में नींबू मिर्च नहीं लगाना पड़ता। वो नजर इस काव्य की ऋद्धि मंत्र को पढ़ने से निकल जाती है। सो यह अद्वितीय काव्य है।
प्रवचन के पश्चात आज का नियम में "दही का त्याग" करवाया। यह विधान 48 दिनों तक इसी तरह पूरी भक्ति के साथ चलेगा। सैकड़ों परिवार प्रभु भक्ति का आनंद ले रहे हैं।
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें