Delhi News: चांद पर लैंडिंग के दौरान क्यों होता है स्पेस क्राफ्ट क्रेश

 



ग्राम समाचार, नई दिल्ली ब्यूरो रिपोर्ट:- रूस का भेजा गया “लूना प्रोब” चाँद पर उतरने के दौरान क्रैश हो चुका है। आज तक चाँद पर भेजे गये स्पेसक्राफ्ट्स में से एक तिहाई से ज्यादा लैंडिंग के दौरान क्रैश हो चुके हैं। आखिर क्या है ऐसा, जो चाँद पर सफल लैंडिंग को इतना मुश्किल बना देता है? चलिए, सबसे पहले जानते हैं कि टर्मिनल वेलोसिटी किसे कहते हैं।.सैद्धांतिक रूप से ग्रेविटी सभी चीजों को समान मात्रा में आकर्षित करती है, अर्थात किसी ग्रह पर एक पक्षी का पंख हो या लोहे का हथौड़ा, दोनों समान वेग से सतह की तरफ गिरेंगे। पर ऐसा पृथ्वी पर नहीं होता। वजह है हवा की मौजूदगी। ग्रेविटी गिर रही चीजों को अपनी और खींचती है, और वस्तु के गिरने की रफ़्तार हर सेकंड बढती रहती है। तो उसी दौरान हवा गिरने वाली वस्तु पर ऊपर की ओर – ग्रेविटी के विपरीत – बल लगाती है। कुछ सेकंड गिरने के बाद एक समय आता है, जब नीचे खींच रही ग्रेविटी और ऊपर धकेल रही हवा, इस तरह एक-दूसरे को कैंसिल-आउट कर देते हैं, कि उसके बाद गिरने वाली चीज के गिरने की रफ़्तार लगातार न बढ़ कर नियत हो जाती है। गिरने की इस फिक्स स्पीड को टर्मिनल वेलोसिटी कहते हैं। एक हट्टे-कट्टे मनुष्य को स्पेस में ले जा कर राकेट से धक्का दे दिया जाए तो 12 सेकंड तक आपकी गति में  त्वरण होगा, उसके बाद आप धरती तक एक फिक्स रफ़्तार (लगभग 250 किमी/घंटा) से पहुंचेंगे। चाँद पर हवा होती तो उतरने वाला यान पैराशूट खोल कर आराम से उतर जाता। हवा की अनुपस्थिति में चाँद पर उतरने वाले यान की रफ़्तार हर सेकंड 1.6 मीटर बढती रहती है, जो कि एक अच्छी चीज नहीं है। हवा न होने के कारण एक ही उपाय है कि चाँद पर उतरते वक़्त विक्रम लैंडर अपने राकेट बूस्टर नीचे की दिशा में फायर करे, जिससे “ऊपर की दिशा में मिला पुश” विक्रम को धीरे-धीरे उतरने में मदद करेगा।  अब राकेट बूस्टर फायर करना फिल्मों में जितना आसान है, वास्तविक जीवन में उतना ही मुश्किल। विक्रम लैंडर अथवा चाँद पर जाने वाले किसी भी यान में इतना ही ईंधन शेष रहता है कि वे कुछ सौ सेकंड्स तक, मेरे ख्याल से मैक्सिमम 5 मिनट की अवधि तक अपने बूस्टर लगातार फायर कर पायें। अर्थात, चाँद पर उतरते वक़्त विक्रम को, हर थोड़ी देर में, अपने गिरने की पोजीशन को हॉरिजॉन्टल रखते हुए, अपने बूस्टर रुक-रुक कर फायर करने होंगे। ऐसा नहीं है कि बूस्टर ऑन किये और लगातार ईंधन फूंकते हुए तसल्ली से चाँद पर उतर गये। इतना फ्यूल है ही नहीं। उतरने की प्रक्रिया के दौरान चारों बूस्टर, एक समय पर, बिना गड़बड़ी के विक्रम की पोजीशन के अनुसार फायर होने चाहियें। एक सिंगल बार भी इस प्रक्रिया में कोई अनियमितता आई, तो विक्रम गुलाटियां खाते हुए चाँद की जमीन पर कहाँ जा कर गिरेगा, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। चाँद की उबड़-खाबड़ जमीन लैंडिंग के बिल्कुल मुफीद नहीं है, ये तो हम जानते हैं। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि वह उबड़-खाबड़ जमीन भी हमनें चाँद के दक्षिणी ध्रुव की चुनी है। हम जानते हैं कि अभी चंद्रयान चाँद का चक्कर लगाते हुए Sideways Orbital Motion में है, वहीँ जहाँ हमें उतरना है, अर्थात ध्रुव, वे तकनीकी रूप से लगभग स्थिर हैं। वहां उतरना कुछ वैसा ही है, जैसे चलती रेलगाडी से छलांग लगा कर स्थिर प्लेटफार्म पर उतरने की कोशिश करना। एक अंतिम समस्या चाँद की सतह पर मौजूद धूल की भी है। लैंडिंग सॉफ्ट न होने की स्थिति में धूल का गुबार उठेगा, जो लैंडर के कैमरा तथा अन्य सेन्सर्स को प्रभावित कर सकता है। इसलिए सॉफ्ट लैंडिंग ही एकमात्र सेफ आप्शन है। चाँद की सतह पर लैंडिंग की जो उपरोक्त जटिल प्रक्रिया बताई गई है, उसको अंजाम देने में इसरो का कोई योगदान नहीं होगा। अर्थात, चंद्रयान पूरी तरह अपने भीतर इंस्टाल कंप्यूटर के हवाले है। उपरोक्त प्रक्रिया को ठीक से अंजाम दे पाना एक जीते-जागते मनुष्य के लिए भी मुश्किल बात है। 

                               (चांद चौबे)

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