ग्राम समाचार,बौंसी,बांका। मंदार पर्वत पर भगवती के चरणचिह्न हैं। कहा जाता है कि जिसकी श्रद्धा हो यह उसी को दिखाई पड़ती है। इतिहासकार बताते हैं कि'महाभारत' के भीष्म पर्व में एक स्तोत्र है। इसे अर्जुन ने युद्ध आरम्भ करने से पहले पढ़ा था। इस स्तोत्र को आरंभ ही किया गया है - "नमस्ते सिद्ध सेनानी आर्ये मन्दरवासिनी..." यह 'मंदर' शब्द को टीकाकार मंदिर का विकल्प के रूप में मानते हैं किंतु यह मंदर शब्द भी मंदार से ही बना है जिसे महर्षि कणाद ने परमाणु के उर्जारूप में स्पष्ट कर दिया है। वैसे, मंदार को कई शास्त्रों में मंदर कहा गया है। मंदिर शब्द की उत्पत्ति भी मंदार शब्द से ही है। मंदिर के स्वरूप में देखें तो उपासक की सभी भगवती मंदिरों में ही विराजित रहती हैं मगर इनके स्थान नामबोध के साथ स्पष्ट होते हैं। अतः इस भाव में यह समझा जाए कि मंदार वासिनी ही मन्दरवासिनी हैं। शास्त्रों के अनुसार मान्य स्थानों में मंदार पर अवस्थित भगवती के इन चरणचिह्नों के साथ ही एक सिद्ध तीर्थ है। 'योगिनी तंत्र' और 'देवी
भागवत पुराण' में बताए गए 108 सिद्ध क्षेत्रों में मंदार पर्वत पर स्थित देवि कामचारिणी को 8वें स्थान पर रखा गया है। यहां 7 सौ फीट ऊंचे इस पर्वत के 441वें फ़ीट पर देवि कामचारिणी अवस्थित हैं। इस स्थान पर एक योनि जैसी संरचना बनी हुई है। इस स्वरूप के मध्य में 9 इंच गड्ढा है। इसी के साथ ही दो चरणचिह्न भी अंकित हैं। यह किसी अल्पवय के बच्चे के कोमल पाँव के निशान जैसा है। लगता है जैसे यह छाप गीली मिट्टी के लौंदे पर लेकर यहां चिपका दिए गए। यहां छेनी-हथौड़ी द्वारा इसे बनाए जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। सामान्य दिनों में लगभग 200 लोग नित्य यहां दर्शन करते हैं किंतु पाँव के इस निशान को गौर से देखने पर दर्शन किया जा सकता है। कहने का आशय कि जो श्रद्धालु इस जगह पर आते हैं वे इसका दर्शन सहज ही नहीं कर पाते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ये 'भुवनेश्वरी' के पांव हैं। जिन्हें कुमारी या कंचक रूप में पूजा जाता है। पहले यह जगह खुले रूप में थी किन्तु अब यहां रहनेवाले साधुओं के श्रम से यह अर्धनिर्मित मंदिर रूप है। इतिहासकार डीसी सरकार ने शाक्ति पीठ में इसकी चर्चा की है। कई अन्य शाक्ति उपासकों ने भी इस स्थल को विशेष बताया है।
कुमार चंदन,ब्यूरो चीफ,बांका।
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें