कितना बदल गया कुंभ



ग्राम समाचार, प्रयागराज -  पौराणिक समय में लगनेवाले महाकुंभ एवं बर्तमान समय में लगने वाले महाकुंभ  कितना बदल गया। आइए जानते है। नीरज कुमार झा से- 


वर्तमान समय में लोग कुंभ जाते किसलिए हैं यह बहुत ही आश्चर्य का विषय है ।

जिस महाकुंभ से ज्ञान, विज्ञान और आध्यात्मिक लाभ लेना चाहिए ऐसा कम दी देखने को मिल रहा है। अब वहाँ सुर्खीया  वटोरने के लिए लोगो को इसकदर वायरल कर रहे हैं कि कौन मोनालिसा है किसकी आँखें सुंदर हैं। कौन नागा साध्वी सबसे सुंदर है।कौन नागा बाबा गुस्से वाला है। कौन बाबा कितने पढ़े लिखे है। बस इन्हीं सब बातों पर केंद्रित होकर रह गया है ।

पौराणिक ग्रंथों में महाकुंभ भगवदीय ज्ञान का, भगवद भक्तों का वैराग्य का संगम है जहाँ आस्था के पीठ पर सवार होकर सनातन धर्म की श्रद्धा नृत्य करती है।

लेकिन मूल तत्त्व से भटक कर हम कुम्भ के उद्देश्य से भटक गए हैं।


कुम्भ का अर्थ होता है घड़ा यानि वह पात्र जो किसी तत्त्व को धारण कर सके। वैसे शरीर को भी कुम्भ कहा जाता था। "क" से काया और "भ" से ज्ञान का प्रकाश या आत्मिक ज्ञान।

जब सूर्य मकर राशि को संक्रमित करते हैं तो वह दक्षिणी गोलार्ड  से  उत्तरी गोलार्ड की ओर आते हैं ।

इसे ही देवताओं का दिवस बोला जाता है ।

अर्थात दक्षिणायन से उत्तरायण में जब सूर्य आते हैं । 

वैज्ञानिक भाषा में मकर रेखा से कर्क रेखा तक

तो इस समय को ही मकर संक्रांति कहते हैं जब सूर्य मकर रेखा के ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र को संक्रमण करता है।

इस समय से ठंड समाप्त होना शुरू होता है। इस समय से जितने जीव पृथ्वी के गर्भ में या प्रकृति के गर्भ में सोए हुए थे जैसे नवोदित होना, फल लगना, पुष्पन से लेकर शीत निद्रा में गए हुए सभी प्राणी अपनी नैसर्गिक अवस्था में आना प्रारम्भ करते हैं।और वसंत  आते आते पूरी पृथ्वी महक उठती है। पेड़ पौधों से और जीव जंतुओं के कलरव चहक उठती है।उत्तरायण इसे ही कहा जाता है ।





जानकार के नजरों में, तो कुम्भ क्या है 

काया अर्थात जीव के अंदर का प्रकाश। जहाँ जहाँ आगे या पीछे "भ" वर्ण आये वह प्रकाश से सम्बंधित होता है।

सभी में नहीं लेकिन शास्त्रीय शब्द जितने हैं, भ का अर्थ होता है प्रकाश ।

तो यह आत्म ज्ञान या प्रकाश कैसे होगा। यही कुंभ के मेल में क्योंकि मकर राशि पर प्रवेश के समय सभी  सन्त महापुरुष गंगा, नर्मदा, गोदावरी या नदियों के आसपास एकत्र होते हैं।और यह प्रक्रिया महीनों से चलती है । क्योंकि पहले साधु महात्मा के पास आवागमन की सुविधा कम थी तो वह पहले से ही एकत्रित हो जाते थे एक जगह। जब ये एकत्रित होते थे तो आम जन इनके दर्शनों का लाभ प्राप्त करने और इनसे ज्ञान लेने आया करता था। सभी लोगों के एकत्र होने से जिसमें बड़े बड़े राजा महाराजा भी होते थे उनके लिए साधन और संसाधन उपलब्ध कराने के लिए लोगों ने दुकान लगानी शुरू की।


यह मेला क्या है  जहां मेल होता है मतलब सन्तों महापुरूषों का आम जनों से मेल ही मेला हो गया।

तो इनके पास रहकर लोग कल्प वास करते थे।

ये कल्प क्या है कल्प तो 14 मनवंतर के बराबर होता है। 

और 1 मनवंतर 71 चतुर्युग के बराबर होता है।

तो कोई कल्प वास कैसे कर सकता है। यही समझने वाली बात है।

सन्त महापुरुष के पास ज्ञान का एक क्षण भी एक वर्ष के बराबर होता है।उनके पास एक दिन भी रहना और अपना आत्मिक लाभ लेना वर्षों के बराबर होता है।

तो यह महीने या आधा महीना मिलाकर उसे कल्प बोला गया।

इस कल्प वास में लोग अपनी छोटी कुटिया बनाकर रहते थे और महात्माओ के पास ज्ञान लेते थे और उनकी सेवा सुश्रुवा करते थे। फिर इसी मकर संक्रांति के दिन वह कुंभ बनते थे।

अर्थात ज्ञान के प्रकाश से पूर्ण होते थे।तब मकर संक्रांति के दिन भगवदीय गंगा में स्नान कर वह पूर्ण हुआ करते थे। 80% लोग इस ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कर वैराग्य ले लेते थे। तो इस दिन इनका स्नान होता था और ये स्नातक बनते थे।


अब आते हैं कि ये अखाड़ों का शाही स्नान क्या होता है 

पहले समझिये ये अखाड़े क्या होते हैं। ये अखाड़ा शब्द "अखण्डा" शब्द का अपभ्रंश है। अखण्ड या अखण्डा शब्द अपभ्रंश होते होते अखाड़ा बन गया।

यह बनाया था आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने

यह बनाया गया था शास्त्र, साधु, महात्मा या जो साधु लोगों की मंडली है, उनकी रक्षा के लिए क्योंकि तब बौद्धों का अत्याचार बढ़ गया था। डकैत से लेकर अन्य लोग हमला कर देते थे।तो कुछ लोगों का चुनाव कर उनको शास्त्र में पारंगत किया गया ताकि वह शस्त्र संचालन कर सकें।आज आप लोग देखते हैं न कि इन नागा साधुओं के पास त्रिशूल, तलवार, भाला इत्यादि सब रहता है और ये लहराते रहते हैं।तो इनको धर्म की रक्षा के लिए तैयार किया गया था। इनका वेश भी इसी प्रकार रखा गया ताकि यह भयानक लगें । 



हड्डी कंकाल धारण करा कर और नग्न कराकर इनको आर्मी की तरह प्रशिक्षण दी जाती थी। घोड़े, हाथी से लेकर सब शस्त्र इनके पास होते हैं जो एक सेना के पास होते हैं ।

ये एक तरह से साधुओं की रक्षा के लिए बनी उनकी सेना होती है। तो इनको शस्त्र में निपुण कर मकर संक्रांति के दिन इनका स्नातक पूर्ण होता था स्नान के पश्चात। इसके बाद मधुसूदन सरस्वती ने भी अखाड़े बनाये। बाद में शैव अखण्डों को देखकर वैष्णवों ने भी अपनी अखण्डा आर्मी बनाया। क्योंकि ये स्नान करने के लिए अपना प्रभुत्व दर्शाते थे जिससे मार काट होती थी।और इनसे लोग डरते थे। इनसे पार पाने के लिए वैष्णव ने अपनी अलग अखण्डा तैयार की।


अखण्डा का अर्थ होता है जो कभी खंडित न हो और न होने दे।तो इसके बाद दशनामी अखण्डा बना।

फिर वैष्णवों आदि का मिलाकर 13 अखण्डा बने।

क्योंकि शैव और वैष्णव अखण्डा बहुत मार काट करते थे पहले स्नान के लिए। यहाँ भी माया ने इनको धर दबोचा और स्नान तक में यह अपना मान सम्मान समझने लगे।

पहले मैं पहले मैं कर कर के इन्होंने आपसी संघर्ष में हज़ारों की संख्या में शैव और वैष्णव हर कुंभ में लड़ते थे और हज़ारों लोग मारे जाते थे।


तो तुलसीदास से लेकर उस समय के सन्तों ने इनके लड़ाई झगड़ों को सुलझाने के लिए शिव और राम में मतभेद को समाप्त किया। शिव और राम कृष्ण को एक बता बता कर इन गधों की बुद्धि को ठीक किया।

तो इनके लड़ाई झगड़ों से कि पहले कौन स्नान करेगा , सब लोगों ने मिलकर एक एक समय और तिथि निर्धारित की। इतने बजे से इतने बजे तक तुम्हारा अखण्डा और इस तिथि को तुम्हारा अखण्डा , इतने से इतने घड़ी तक तुम्हारा अखण्डा स्नान करेगा ।

तो जब यह शस्त्र विद्या में पारंगत हो जाते थे तो स्नान करवाकर स्नातक बनाया जाता था और तब इनको सम्प्रदाय या सेना में शामिल किया जाता था।बाकी के बहुत अखण्डा बने मुग़ल काल में हिंदुओं की रक्षा के लिए।

शास्त्र की रक्षा के लिए, धर्म की रक्षा के लिए।

लेकिन आज कितना भी धर्म संकट में आ जाये, ये लोग बस अफीम गाँजा में ही रमे रहते हैं और आम जन विधर्मियों के तलवारों का ग्रास बनते हैं।

जिस कारण या उद्देश्य को देखकर इनको बनाया गया था, अब उसका मूल समाप्त हो गया और बस रह गया अखण्डों के नाम पर खानापूर्ति। बस ये नङ्गे होकर तलवार लहराते हुए दूसरों को सर्कस दिखाते हैं।


महापुरुषों के बाद उनके मूल सिद्धांतों को लोग समाप्त कर देते हैं और परम्परा के नाम पर बस केवल प्रतीकों को ढोते हैं। ये जो शाही स्नान कहते हैं, ऐसा कुछ नहीं है। शाही शब्द तो फ़ारसी है। इसका संस्कृत से कोई लेना देना नहीं है ।

तो जब मुग़ल काल में शैव और वैष्णवों का खूनी संघर्ष बढ़ गया था स्नान को लेकर तो वहाँ के मुग़ल राजा ने इनके खूनी संघर्ष को रोकने के लिए इनको शाही स्नान का विधान बनाया कि कौन पहले स्नान करेगा और आम लोग कब स्नान करेंगे ।

तो यहीं से सब परम्परा शुरू हुई जिसका मूल तत्त्व से कोई लेना देना नहीं है ।

और आज तो आप जानते ही हैं कि कुम्भ आज केवल अपने स्वामित्व, अपने प्रदर्शन, अपनी शक्ति प्रदर्शन , अपने प्रभुत्व, अपने ऐश्वर्य को दर्शाने का एक माध्यम बन गया।

वास्तव में कुंभ

वास्तविक और आंतरिक रूप से  इड़ा पिंगला सुषुम्ना का जहाँ मिलन होता है , वही संगम कहलाता है। उसी संगम में स्नान कर जीव कृत कृत्य हो जाता है। तभी अमृत कुम्भ प्रकट होता है।

यह कुम्भ निर्धारित होता है सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति के आधार पर होता है।

कथाओं में सूर्य और चन्द्रमा दोनों अमृत कलश लेकर भागते हैं गुरु बृहस्पति के आदेश पर इन तीनों के कारण ही कुम्भ होता है।

जैसे  

बृहस्पति जब कुम्भ राशि में और  सूर्य मेष राशि मे तो हरिद्वार में कुम्भ लगता है, बृहस्पति मेष राशि में और सूर्य और चन्द्रमा जब मकर राशि पर आते हैं तब प्रयागराज में, बृहस्पति और सूर्य जब दोनों सिंह राशि में  तब नासिक में, बृहस्पति सिंह और सूर्य मेष राशि में तब उज्जैन में 

लेकिन ये 12 वर्ष ही क्यों  

क्योंकि बृहस्पति सूर्य का  1 चक्कर 12 वर्ष में पूर्ण करता है ।

जब यह आधा चक्कर लगाता है तो इसे अर्धकुंभ कहते हैं।

जब यह पूर्ण चक्कर पूरा करता है तो यह पूर्ण कुम्भ होता है।और जब यह 12 चक्कर पूर्ण करता है तो उसे महाकुंभ कहते हैं जो अभी चल रहा है 144 वर्ष बाद। 

तो बृहस्पति बुद्धि का प्रतीक है। सूर्य और चन्द्रमा प्रतीक हैं इड़ा और पिंगला नाड़ियों का।सत्व बुद्धि से इड़ा पिंगला नाड़ियों को सुषुम्ना में कर देना जिसे संगम कहते हैं, वही पूर्ण कुम्भ होता है।

इसीलिए कुम्भ का वास्तविक अर्थ समझ कर उसका लाभ लीजिये।

लेखक - नीरज कुमार झा

(उक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं)

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Editor - कैलाश शर्मा, विशेष संवाददाता।

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